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Friday, February 18, 2011

मीडिया में नारी शोषण .............

मीडिया में नारी शोषण .............
( तोशी गुप्ता / रायपुर ) 
नारी कुदरत क़ी बनाई अनिवार्य रचना है ,जिसके उत्थान हेतु समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने सतत संघर्ष किया है। आज क़ी बहुमुखी प्रतिभाशील नारी उसी सतत प्रयास का परिणाम है। आज नारी ने हर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम किया है, चाहे वह शासकीय क्षेत्र हो या सामाजिक, घर हो या कोर्ट कचहरी , डाक्टर, इंजिनीयर, अथवा सेना का क्षेत्र, जो क्षेत्र पहले सिर्फ पुरुषो के आधिपत्य माने जाते थे, उनमे स्त्रियों क़ी भागीदारी प्रशंसा का विषय है। इसी तरह प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी स्त्रीयों क़ी भागीदारी से अछूता नहीं है । प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया समाज के दर्पण होते है, जिसमे समाज अपना अक्श देखकर आत्मावलोकन कर सकता है । पिछले कई वर्षो से मीडिया में नारी क़ी भूमिका सोचनीय होती जा रही है। आज प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया जिस तरह नारी क़ी अस्मिता को भुना रहा है, वह जाने - अनजाने समाज को एक अंतहीन गर्त क़ी ओर धकेलते जा रहा है। इसका दुष्परिणाम यह है क़ी आज नारी ऊँचे से ऊँचे ओहदे या प्रोफेशन में कार्यरत क्यों ना हो वह सदैव एक अनजाने भय से ग्रसित रहती है। क्या है ये अनजाना भय ? निश्चित रूप से यह केवल उसके नारी होने का भय है जो हर समय उसे असुरक्षित होने का अहसास दिलाता रहता है। आलम यह है क़ी आज नारी घर क़ी चारदीवारी में भी अपनी अस्मिता बचने में अक्षम है। प्रारंभ में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया धार्मिक, सात्विक संदेशो द्वारा समाज को सही मार्गदर्शन देने का आधार था , लेकिन धीरे - धीरे उसका भी व्यवसायीकरण हो गया और झूठी लोकप्रियता भुनाने वह समाज के पथप्रेरक के रूप में कम और पथभ्रमित करने के माध्यम के रूप में अधिक नज़र आने लगा। शुरुआत हम छोटे परदे से करते है, जहा लगभग हर सीरीयल मे मानवीय संबंधो के आदर्श रूप को नकारते हुए नारी को एक ऐसी " वस्तु " के रूप में दर्शको के सामने परोसा जाता है, जंहा वह केवल एक भोग्या मात्र ही दिखाई जाती है। हर दूसरा सीरीयल नारी के पूज्यनीय चरित्र क़ी धज्जिया उडाता हुआ नज़र आता है। एक नारी पात्र ही दूसरी नारी पात्र पर शोषण और अत्याचार करती हुई नज़र आती है। नारी के विकृत रूप को दिखाने क़ी रही सही कसर एक ख्याति प्राप्त निर्देशिका के डेली सोप सीरीयलों ने पूरी कर दी जिसने रिश्तो क़ी सभी मर्यादाए तोड़ दी और कितने आश्चर्य क़ी बात है कि यही सब सीरीयल काउंट डाउन शो में अपनी सफलता के परचम गाड़ते हुए टाप नम्बरों पर होते है। इसी तरह यदि हम विभिन्न विज्ञापनों कि बात करे तो विज्ञापनों ने तो हमारी संस्कृति कि सीमा ही लाँघ दी। विज्ञापनों में नारी कि भूमिका कंही से भी विकृत नहीं बशर्ते कि उससे समाज को अच्छा सन्देश मिले लेकिन विज्ञापनों में नारी के नग्न रूप का प्रदर्शन समाज में नारी के प्रति आकर्षण नहीं बल्कि विकर्षण पैदा करता है । अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा विज्ञापन समाज में गन्दी मानसिकता पनपने पर जोर देता है ओर सामाजिक अपराधो को बल मिलता है। बलात्कार, महिला शोषण, यौन शोषण आदि सब इसी विकर्षण का नतीजा है। अधिकतर विज्ञापनों में नारी देह प्रदर्शन ही देखने को मिलता है। किसी ने तर्क के आधार पर यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि देह प्रदर्शन के कारन बाजार में कोई वस्तु बिकती है या अपनी गुणवत्ता के कारन। किसी वस्तु को विज्ञापनों में देह प्रदर्शन के बिना प्रदर्शित किया जाये तो उसकी बिक्री कम होगी या नहीं होगी ऐसा कोई तर्क स्वीकार्य नहीं है। कितने अफ़सोस कि बात है कि आज किसी वस्तु के प्रचार - प्रसार के लिए एक नारी को किसी वस्तु कि तरह उपयोग किया जा रहा है। फिल्मो ने तो नारी देह के प्रदर्शन में सभी को पीछे छोड़ दिया , जंहा अभिनेत्रिया आपत्तिजनक अंगप्रदर्शन और दृश्य करने के बाद यह कहकर पल्ला झाड लेती है कि फला सीन में कोई बुराई नहीं है और यह तो फिल्म कि मांग और सिचुएशन के अनुरूप है। इससे शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है जब स्वयं नारी ही एक अनुचित प्रदर्शन को लेकर इस तरह का तर्क प्रस्तुत करे। " क्या कूल है हम..." "गरम - मसाला" , नो एंट्री जैसी घटिया कॉमेडी फिल्मे दर्शको के सामने परोसकर निर्माता - निर्देशक समाज को कौन सी दिशा देना चाहते है ये मेरी समझ से परे है । और उसके बाद निर्माता - निर्देशकों द्वारा यह टिपण्णी किया जाना कि ऐसी फिल्मे आज के दर्शको कि डिमांड है और यंग जेनरेशन के अनुरूप है, बहुत ही हास्यास्पद लगता है। निश्चित रूप से ये फिल्मे जो "ऐ " सर्टिफिकेट नहीं है (?) पुरे परिवार के साथ बैठकर देखी जा सकती है बशर्ते कि पूरा परिवार अलग -अलग कमरों में बैठकर फिल्मे देख रहा हो। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में नारी देह के प्रदर्शन से फैलती गन्दी मानसिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल की छात्रा का आपत्तिजनक एम् एम् एस किसी वायरस कि भाति लोकप्रिय (?) हो गया और इंदौर के किसी कालेज की लडकियों कि आपत्तिजनक तस्वीरे किसी "विशेष" इंटरनेट साईट पर देखी गई , जिससे लडकिया पूरी तरह अनजान थी। इस बढ़ते साईबर क्राइम का जिम्मेदार कौन है ? माना कि नारी सुन्दरता का प्रतीक है , और सुन्दर दृश्य मन को प्रफुल्लित करता है, परन्तु जब इस सौंदर्य कि सीमा लांघी जाती है, तो वही उसके बुरे स्वरुप का परिचायक बन जाता है। किसी भी देश और समाज कि उन्नति तभी संभव है , जब उस देश की, उस समाज की नारी का वंहा सम्मान हो। आज प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में नारी कि भूमिका में पर्याप्त सुधार की आवश्यकता है । हमें पाश्चात्य सभ्यता एवं वातावरण का अनुकरण ना करके समाज को भारतीय संस्कृति की ओर लौटने के लिए प्रेरित करना होगा । भोगवादी प्रवृत्ति को समाप्त करके ऐसा वातावरण बनाना होगा जंहा नारी को पूर्ववत आदर एवं सम्मान मिले। आज के इस भोगवादी समाज में नारी सम्मान के अपमान कि धृष्टता करने वालो को यह बताने कि आवश्यकता है कि नारी केवल सहनशीलता और त्याग कि मूर्ती नहीं है, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर वह अपने ऊपर होने वाले अन्याय का मुहतोड़ जवाब देकर आत्मविश्वास के साथ सुखपूर्वक जीवन बिता सकती है। सबसे अहम् बात यह है कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में नारी कि भूमिका में बदलाव लाने के लिए पहला कदम स्वयं नारियों को ही उठाना होगा तभी यह सुधारवादी आन्दोलन सफलता प्राप्त करेगा और एक स्वस्थ और सुखी समाज कि कल्पना कि जा सकती है। (यह लेख हमनें तोशी गुप्ता के ब्लॉग 'तोशी 'से साभार लिया है . ब्लॉग का पता है - http://toshigupta.blogspot.कॉम )

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