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Thursday, March 3, 2011

पत्रकारों को विश्वासघात करना सिखा रही है सरकार

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राजस्थान पत्रिका के मालिक गुलाब कोठारी
राजस्थान पत्रिका के मालिक गुलाब कोठारी
गुलाब कोठारी गुस्से में हैं. राजस्थान पत्रिका अखबार के मालिक गुलाब कोठारी को यह गुस्सा मजीठिया आयोग की उस सिफारिश पर आया है जिसमें संस्तुति की गयी है कि पत्रकारों के वेतन में वृद्धि होनी चाहिए. गुलाब कोठारी को शिकायत है कि सरकार पत्रकारों का वेतन बढ़ाकर उनका मन बढ़ा रही है और एक तरह से पत्रकारों को मालिकों के खिलाफ भड़का रही है. यह न केवल भ्रष्टाचार है बल्कि इससे सरकार की धृष्टता भी प्रकट होती है. बुधवार 2 मार्च 2011 को पत्रिका के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित गुलाब कोठारी का यह विशेष संपादकीय आपके विचार के लिए-
सत्ता के व्यभिचार का सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष उदाहरण है-पत्रकारों के लिए गठित किया जाने वाला वेतन आयोग। देश में किसी भी अन्य क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए कोई आयोग गठित नहीं किया जाता। दूसरी बात आयोग मूलत: पत्रकार संगठनों के जरिए सरकारी भाषा बोलता है। तीसरी बात जो कुछ मीडिया में हो रहा है, उसके व्यवहार पक्ष एवं बदलते परिवेश की परवाह कोई नहीं करता और चौथी बात- कोई भी सरकार इसको लागू करने का प्रयास भी नहीं करती। जब देश के 15-20 संस्थानों के सिवाय इसे कोई लागू करता ही नहीं है। तब क्या सार्थकता है आयोग के गठन की?
सरकार पत्रकारों को दत्तक पुत्र मानती है और अपनी कमाई का अंश भी उन तक पहुंचाने को कृत संकल्प है। बिना संविधान की स्वीकृति के मीडिया को चौथा पाया मान लिया। पत्रकारों को दिल खोलकर सुविधाएं देकर संस्थान के प्रति विश्वासघात करना सिखाया जाता है। पत्रकारिता के सिद्धान्तों के स्थान पर सरकार की स्वार्थपूर्ति का प्रशिक्षण दिया जाता है। वेतन भी आयोगों के माध्यम से दोगुना, उससे अघिक सरकारी जमीनें-मकान-यात्रा सुविधाएं-मौज मस्ती और व्यवहार सरकारी नीतियों के अनुकूल। किसी भी संस्थान के कर्मचारियों को भ्रष्ट करना, संस्थान के हितों के विरूद्ध कार्य करने के लिए रिश्वत देना क्या न्याय संगत है? हाल ही में आपने देखा कैसे पत्रकारों को स्मार्ट काड्र्स के जरिए नकद राशि बांटी गई। और न किसी को शर्म आई, न किसी की नाक कटी। पत्रकारों की हैसियत मांगने वालों जैसी बनकर रह गई। भले ही प्रेस क्लब के नाम से मांगते हों।

इन सबका प्रभाव दो धाराओं में बंट गया। जिन समाचार-पत्रों ने पत्रकारों पर पकड़ बनाने का प्रयास किया और स्वतंत्र लेखन की परम्परा को जारी रखने का प्रयास किया, वे किसी भी सरकार के साथ, विशेषकर अघिकारियों के साथ, मधुर सम्बन्ध नहीं बना पाए। सरकारों के विरोध में लिखते रहने से कोप भाजन भी बनना पड़ा। अनेक शत्रु भी पैदा हो गए। उनके साधारण कार्य भी करने को कोई तैयार नहीं होता।

इसके विपरीत जिन समाचार पत्रों ने इस नीति को स्वीकृति दे दी, उन पर सरकार की अनुकम्पा बढ़ गई। कुछ समाचार-पत्र मालिक भी मांगने वालों की लाइन में खड़े हो गए। किसी भी सरकार को इससे अच्छा रास्ता क्या मिल सकता है। किन्तु सरकार के इस प्रश्रय के कारण इनमें स्वच्छन्दता घर कर गई। ये समाचारों के बदले धन भी मांगने लगे और विज्ञापनों के लिए व्यापारियों और कमजोर अघिकारियों को धमकियां भी देने लगे। जनता से जुड़ने की इनकी आवश्यकता ही समाप्त हो गई। धन की बरसात में देश के अनेक बड़े-बड़े अखबार डूब गए। चस्का राज्यसभा में जाने और अन्य सरकारी पुरस्कार पाने का भी लग गया।

सरकारों ने अखबारों का, विज्ञापनों का भी राजनीतिकरण कर दिया। हर नेता ने अखबार खड़े कर लिए। आज 80 प्रतिशत से अघिक फर्जी अखबार सरकारी सूची में हैं। लोगों ने उनके नाम भी नहीं सुने। उनको करोड़ों रूपए के विज्ञापन हर साल जारी होते हैं। प्रसार संख्या भले सैकड़ों में हो बताते लाखों में हैं। उसी आधार पर मनमानी दरें लेते हैं। सरकारें कुछ देखती नहीं। दोनों, अखबार मालिक तथा सूचना और जनसम्पर्क निदेशालय तरबतर रहते हैं। इनके पत्रकारों को अघिस्वीकरण की सुविधाएं अलग मिल रही हैं। सरकारी मेहमान एवं रौब मारने वाले जनप्रतिनिघि की तरह व्यवहार करते हैं।

स्वयं सरकार इनको कानून के परे जाकर सिर पर बिठाती है। समाचार-पत्रों को निदेशालय द्वारा जारी विज्ञापनों पर स्वयं विभाग दलाली खाता है। यह दलाली सरकारी खजाने में नहीं जाती। अफसर खाते हैं। सरकारी दरों पर कमीशन का अवैधानिक कानून तक सरकार ने बना दिया है। कई प्रदेशों के उच्च न्यायालय इसके खिलाफ फैसला दे चुके हैं। हमारी सरकार इसकी परवाह नहीं करती। बल्कि इस सुख का फिर से लाभ उठाने के लिए सेवानिवृत्त अघिकारी को फिर से जिन्दा करके निदेशक पद पर बिठा दिया। कोई बात का उत्तर तो दे कि 'संवाद' संस्था बनाने का सरकार का औचित्य क्या है। सरकार धन बचाना चाहती है तो विज्ञापनों की दरें कम कर सकती है। वो भी नहीं। सरकारी संस्था की आय सरकारी खाते में क्यों नहीं जाती।

यह सारे उदाहरण इस बात के सूचक हैं कि सरकारें स्वतंत्र प्रेस चाहती ही नहीं हैं। पत्रकारों को चेतना शून्य बनाए रखना चाहती हैं। ताकि कोई पत्रकार अपने संस्थान के प्रति निष्ठावान नहीं रह पाए। पीछे के दरवाजे से उन्हें भ्रष्ट करने में लगी रहती हैं। और यह सारा प्रयास केवल प्रेस और पत्रकारिता को खरीदने के लिए। इससे ज्यादा व्यभिचार और हो भी क्या सकता है। संस्थान से आयोग के जरिए दोगुना वेतन दिलाना और हडि्डयां डालकर संस्थान के विरूद्ध कार्य करवाना।फिर भी आप इनको न भ्रष्ट कह सकते हैं, न ही धृष्ट!!

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